Tuesday, 27 December 2011

JAI POORNWAAD



 
  



             

//  जय पूर्णवाद  // 
डॉ. रामचंद्र प्रल्हाद पारनेरकर महाराजजी का परिचय ः-
पूर्णवादाचार्य विद्वदत्न डॉ. रामचंद्र प्रल्हाद पारनेरकरजी का जन्म आषाढ शु. पूनम शके १८३८ दिनांक २६ जुलाई १९१६ मे इंदौर (म.प्र.) में हुआ *  इंदौर और उज्जैन मे शालेय शिक्षा  प्राप्त करने के पश्चात उन्होने साहित्य, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, तर्क, न्याय,   तत्वज्ञान, योगशास्त्र, ज्योतिर्गणित, भूगर्भशास्त्र, पदार्थ विज्ञान आदि शास्त्रोंका गहन एवम स्वतंत्र रुपसे अध्ययन करते हुवे डॉक्टरेट हेतु विश्वोत्तपत्ती के संदर्भ में अत्यंत मूलगामी प्रबंध बर्लीन विद्यापीठ (जर्मनी) को प्रस्तुत किया था *  कितू द्वितीय महायुध्द के धमासान लडाई में वो नष्ट हो गया *  फिर भी हिम्मत न हारते हुवे उन्होंने श्रीमद आद्य शंकराचार्यजी का मायावाद एवम श्री गौडपादाचार्यजीके अजातवाद को पूर्वपक्ष बनाते हुवे अपना स्वतंत्र तत्वज्ञान सिध्दांत पूर्णवाद विश्वके सामने रखा *  पूर्णवाद इस प्रबंध पर भारत धर्म महामंडल, बनारस (*** ***** ******** * ********* **********) इस सबसे पूराने विद्यापीठने दिसंबर १९४८ मे डॉक्टरेट (**.*.) प्रदान करते हुवे सन्मानित किया *
आत्मावलोकन और आत्म चिन्तन वे प्रथम गुण हैं, जिन्होने प.पू. रामचंद्र महाराजजी को जीवन के प्रति गम्भीर होना सिखाया *  वे निरन्तर आत्मनिरीक्षण और आत्म परिष्कार करते रहे * 
सभी महापुरुषोंके जीवन में एक विशेष बात दिखाई देती है कि वे आत्म -  प्रेरणा से प्रेरित होते हैं *  वैसे ही प.पू. रामचंद्र महाराज भी आजीवन आत्मप्रेरणाओंसे प्रेरित और निर्देशित होते रहे *  महाराज के व्यक्तित्व में एक अनूठा गुण यह था कि वे हर एक घटना से कोई ना कोई शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करते थे *  और इसी एक गुण ने उन्हे एक महान शिक्षक और शिक्षाविद बना दिया *
भुल को स्विकार करना और आगे के लिए तदनुरुप सुधार करना महाराज को विशेष प्रिय था *   इसकी लगन उनमे अन्ततक बनी रही *
महाराज के व्यक्तित्व म साहस, ईमानदारी, संघर्षशीलता, विनोदप्रियता, कठिण अवसरोंपरभी सहज बने रहना, उत्तर दायित्वों को पूरा करनेकी भावना, परिवार के लोगों और शिष्यों को समान रुप से स्नेह करने की भावना, व्यवहार कुशलता, औचित्य पूर्णता और न्यायोचितता आदि ऐसे अनेक गुण थे जिन्होंने उनके व्यक्तित्व कों सामान्य से असामान्य उंचाईयाँ प्रदान की *  महाराज आजीवन प्रयोगशील बने रहे *  जो भी बात वे अपने शिष्यों से कहते थे, पहले अपने जीवन में उसका प्रयोग करके देखते थे *
इन सभी गुणोंसे बढकर जिस गुण ने उन्हें प.पू. रामचंद्र महाराज बनाया, वह गुण है - अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण और लक्ष्य के प्रति पूर्ण निष्ठा *
महाराज के जीवन में पारिवारीक परिस्थीतीयाँ,बाहय परिस्थितीयाँ, कार्य की दिशा और कर्तव्य पालन कभी भी पूर्णतः अनुकुल और सरल नही रहीं *  जब उन्हें सबसे अधिक सहयोग की  आवश्यकता थी तब उन्हें सबसे ज्यादा संघर्ष करना पडा *  जीवन के महान प्रयोग जीनसे पूर्णवाद की उत्पत्ती हुई और पूर्णवादी जीवन  - पध्दती ने विस्तार पाया, जिस समय महाराज उन्हें करके देख रहे थे उनका अध्ययन कर रहे थे, उस समय उन्हें परिवार में या समाज कें किसी का भी समर्थन नही मिला और सहयोग प्राप्त नही हुआ *  इस समय उन्हें गम्भीर आर्थिक कठिनाईयों का भी सामना करना पडा *  उनकी प्रतिभा और शिक्षा के आधारपर उन्हें युवा अवस्था के प्रारंभ में ही अच्छी नौकरी मिल गई थी *  किन्तु उन्हें तो भविष्य में एक महान उत्तरदायित्व को पूरा करना था *  इस कारण उन्होंने नौकरी को अस्वीकार कर दिया *  महाराज के पिताश्री को उनका यह निर्णय स्वीकार्य नही था *  इस बात को लेकर पिता-पुत्र में बहुत लम्बे समय तक मन मुटाव बने रहे *  आर्थिक आवश्यकताओंको पूरा करने के लिए  महाराजने रत्नोंका व्यवसाय आरम्भ किया *  किन्तु इस व्यवसाय में भी उन्हें बहुत अधिक कठिनाईओं का सामना करना पडा *
इस प्रकार एक ओर अन्तर्मन का महान दार्शनिक संघर्ष और दुसरी ओर पारिवारीक कठिनाईयाँ, आर्थिक कठिनाईयाँ, अवस्था संबंधी कठिनाईयाँ, साधना के क्षेत्र मे प्रगति सम्बन्धी कठिनाईयाँ तथा इन सबसे बढकर उनकी बहुमुखी प्रतिभा को अपेक्षानुरुप सम्मान और स्वीकृती न मिल पाने की स्थिती; ये सारी बातें किसी भी शक्तीशाली से शक्तीशाली व्यक्तित्व को विचलीत करने में पर्याप्त थी *  किन्तु प.पू. महाराज  इनसे विचलीत नहीं हुए * 
प.पू. डॉ. पारनेरकरजी को निर्गुण साक्षात्कार के साथ साथ सगुण साक्षात्कार के भी दर्शन हुए थे *  उन्होंने उनके विचारोंका संकलन जान पहचान एवं परिचय इन ग्रंथोद्वारा प्रकाशीत किया *  इसके पश्चात उनके द्वारा  परिसरांत , संफ, संघर्ष , पूर्णवादी अर्थशास्त्र आदि विचारशील ग्रंथेंाका और अभिनव अभंग नामक रचनाओंका निर्माण करते हुए सामान्य जनों के लिए पूर्णवाद अत्यंत सरल किया *
भगवान की आज्ञा से अंगीकृत किया हुआ गुरुत्व का कार्य पूर्ण करने की कृतार्थता उन्होंने अपने संघर्ष ग्रंथ में व्यक्त की है *  ऐसे महनीय, दिव्य, कृतार्थ जीवन बैसाख शु. १३ शके १९०२ मे पूर्णत्व मे विलीन हुए *




पूर्णवाद का परिचय
श्री प्रल्हाद गुरु और सौ. यमुनाबाई के घर सन १९१६ की १६ जुलाई को आषाढी पुर्णिमा के दिन एक दिव्य कांतीवान बालक का जनम इंदौर मे हुआ *  इस बालक का नाम रामचंद्र रखा गया *    वे बचपनसेही कुशाग्र (तल्लख) बुध्दीके थे *  उन्होने अपने अध्ययनमें समग्र शास्त्रीय दृष्टी अपनाई और शास्त्र दृष्टी की ओर ये जीवन दृष्टी का सुन्दर समन्वय स्थापित किया *  उन्होंने श्रीमद् आद्य शंकराचार्यजी का मायावाद एवम् श्री गौडपादाचार्याजी के अजातवाद को पूर्वपक्ष रखते हुए अपना स्वतंत्र तत्वज्ञान सिध्दांत पूर्णवाद विश्व के सामने रखा *  पूर्णवाद इस  प्रबंध पर भारत धर्म महामंडळ, बनारस, इस सबसे पुराने विद्यापीठ ने डिसेंबर १९४८ मे पी.एच.डी. प्रदान करते हुए सम्मानित किया *
संपूर्ण जीवन को आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक स्तर से ऊँचा उठाकर वस्तुनिष्ठ स्पंदन को ही एक उच्च भुमीका पर आरुढ करना तथा उसके संतोष, उत्साह और आनंद को बनाए रखते हुए उसे वृध्दिगत कर एक दिव्य स्वरुप मे परिणित करना, यह प.पू. रामचंद्र महाराज का मुख्य लक्ष्य था *  जीवन की पूर्ण उपलब्धी के तदनुरुप साधना, उपासना की खोज महाराज के जीवन का प्रमुख ध्येय था *
डॉ. रामचंद्र महाराज पारनेरकरजी को उम्र के अठारवे साल मे श्री गणेश की ओर से मंत्र मिला *  चौबिस साल की उम्र में उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ, तो सिर्फ सत्तावीसवे वर्ष मे उन्हें श्री गणेश के सगुण दर्शन हुए और गुरुत्व करने की आज्ञा मिली *  भगवान श्री गणेश की प्रेरणा से सन १९४९ की व्यास  पुर्णिमा के दिन श्री दादासाहेब  देशपांडे, प.पू. रामचंद्र महाराज के प्रथम शिष्य बने और उनके जीवन मे गुरु के महान दायीत्वपूर्ण कार्य का शुभारंभ हुआ *
पुरे भारतवर्ष में संचार करते हुए उनके व्याख्यान, प्रवचन चर्चा आदिमें जीवनोपयोगी पूर्णवादी विचार उन्होंने समय समय पर व्यक्त किये थे *  ऐसे विचारों का संकलन जान पहचान (तोंडओळख) एवंम् परिचय इस ग्रंथो द्वारा प्रकाशित हुआ है *  उनके द्वारा अभिनव अभंग (पद्यरचना) परिसरांत, संफ, संघर्ष, पुर्णवादी अर्थशास्त्र आदि विचारशील ग्रंथों की रचना करते हुए सामान्यजनों के लिये पूर्णवाद सुलभ करके दिया *
जीवन सिध्दी का आनंद अनुभव लेते हुए २७ एप्रिल १९८०, वैशाख शुक्ल चतुदर्शी के दिन रात को एक बजे श्री गणेशजीकी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए प.पू. रामचंद्र पारनेरकर महाराज पूर्णपुरुष स्वरुप मे विलीन हो गए *
प.पू. महाराजके समान अथक परिश्रम, उत्साह और लगन के साथ उनका कार्य उनके समर्थ पुत्र वर्तमान पूर्णवाद वर्धिष्णू प.पू. विष्णू महाराज पारनेरकर (*.*.*.*.*.) के नेतृत्व मे चल रहा है *  अपने अथक प्रयासो से न केवल भारत बल्कि विदेश में भी पूर्णवाद का प्रसार हुआ है *  प.पू. रामचन्द्र महाराज की इच्छानुसार २६ एप्रिल १९८३ को पूर्णवाद ग्रंथ का प्रकाशन ऐतिहासिक नगर पूणे मे समारोहपूर्वक हुआ *
   प.पू. विष्णू महाराजने अनेक संस्थाओ का निर्माण किया है *  २८ फरवरी १९८२ मे मराठवाडा पूर्णवादी परिषद का गठण हुआ *  इसका उद्देश पूर्णवादी तत्वज्ञानका परिपोषण करना है *  दुसरीही बैठकमें युवक मंच गठीत हुआ और डॉ. पारनेरकर व्याख्यानमालाका शुभारंभ हुआ *  पूर्णवाद परिषदका प्रथम अधिवेशन नांदेड मे हुआ *  इस प्रकार अधिवेशनों की परम्परा स्थापित हुई *  पारनेर में सन १९८४ मे डॉ. पारनेरकर स्मृति मंदिर पूर्ण हुआ *  प.पू. विष्णू महाराज के अथक प्रयासो से अभी तक १२१ मंदीर पूर्ण हो गए है *  प.पू. विष्णू महाराज ने अखिल भारतीय पूर्णवादी नारी फोरम की स्थापना की *  नारी फोरम की स्थापना स्त्री शक्ती का विकास होने हेतू की *  सामाजिक क्षेत्र, शिक्षण क्षेत्र व राजनितीक क्षेत्र मे प्रगती करणेका प्रोत्साहन नारीयोंको दिया *  प.पू. महाराजने युवा फोरम संस्था का निर्माण सिर्फ युवक व युवतीयों पर अच्छे संस्कार हो इसी हेतू को ध्यान मे रखकर कीया है *  पूर्णवाद ***** ****** का निर्माण पति-पत्नी के रिश्तो मे मधुरता कैसे बनी रहे इस बात को प्रेरित करती है *  आज प.पू. विष्णू महाराजजीने एक पूर्णवादी विद्यापीठ का निर्माण किया है जहाँ के विद्यार्थी सिर्फ ज्ञान ही  नही बल्की विवेक पूर्वक जीवन जीने की कला का पाठ पढ रहें हैं *  प.पू. रामचंद्र महाराज कहते थे, ठहरो क्षणभर, ठहरो तुझमे आत्मतत्व है * पैरों तले प्रपंच है, उपर ईश्वर है, पूर्व दिशा में निरोघ निवृत्ती है ,  पश्चिम दिशा ये सुख की लालसा है, पिछे पूर्वज है, आगे वंशज है, आसपास लोकसमुह का जगत है, दसों दिशाओं को मत देखो निराशा मत देखो, प्रकाश देखो, अनासक्त मत हो, आसक्ती जरुर रखो, आनंद प्राप्ती की वासना रखो, प्रकाश में से चलो सुखी यशस्वी, सफल जीवन की ओर *  इस दुनिया में मानव, जीवन का दिव्य वरदान लेकर आया है *  जाना तो है, पर इस दुनिया* के बहुविधा भुमिका के बंधन को न मानते हुए प्रत्येक भूमिका निष्ठा पूर्वक करो *  सुखी सफल हो और फिर जाओ *  मंगलमय होकर जाओ *
 //   जय पूर्णवाद   //
  


गुरु निष्ठा ः-
गुरुनिष्ठा याने शिष्यके दिलमे गुरुविषयक निष्ठा, आस्था होना बोहोत जरुरी है *  अपने गुरुके प्रति परम निष्ठा होना याने गुरुका आदरातिथ्य करना *   बिना गुरुनिष्ठा के शिष्यकी प्रगती नही हो सकती *  जो शिष्य अपने गुरु के  प्रति एकनिष्ठ रहता है, उनके आज्ञाओंका पालन करता है, जो गुरुके प्रति कृतज्ञ रहता है, सदा तत्पर होता है ऐसेही शिष्यको सत्शिष्य*कहा जाता है *
सत और चित एक ही सीक्केके दो बाजुए है *                                   जड + चेतन = जीवन
गुरु और शिष्य के नामों मे महान अर्थ है *  शिष्यका नाम ज्ञानदेव और गुरुका नाम निवृत्ती ऐसा हम माने तो हमे गुरुका महत्व समझ आ सकता है *  निवृत्ती शब्द का अर्थ पीछे मुडके न देखना, वैराग्य धारण करनेवाला ऐसा होता है , और शिष्य का नाम ज्ञानदेव उसका अर्थ ज्ञानी और     ज्ञानसंपन्न होता है *  ज्ञानको वैराग्यका साथ नही हो तो उसका कोई महत्व नही है *  उपासना मार्ग अथवा परमार्थ मार्गमे गुरुका आशिर्वाद आवश्यक है *  इसलिये गुरुनिष्ठा एक शिष्यके जीवन का महत्वपूर्ण घटक है *






पूर्णवादी तत्वज्ञान ः-
जीवन की जरुरत से तत्वज्ञान का जन्म होता है * 
यह प.पू. महाराजजीका सिध्दांत है *  इस सिध्दांत के अनुसार उपासकने अपने जीवन की तरफ देखना चाहीए *
मनुष्य के जीवन में सुख, शांती और समाधान की प्राप्ती सही सच्चा परमार्थ है *  दुसरा सिध्दांत है की , इन्सानका स्वभाव मुलतः नही होता*  स्वभाव का*स्वरुप परिवर्तित होता है *  वो मुलतः स्वयंभु नही होता *  हम स्वभाव को बदल सकते है *
इस सिध्दांतसे हमे यह समझता है की कोई भी मनुष्य अपना स्वभाव बदल सकता है *
विचारोंका साधन बुध्दी, यह मानवमे लगाई हुवी एक खोज     है *  हम अपने जीवनमे बुध्दीके निर्णयानुसार संस्कारोंका अवलोकन कर सकते है *  जन्म लेनेवाले हर एक इन्सानको जीवन  जीनेकी इच्छा होती है, और सफलताओंसे जीवन जीनेकी आस यही उसकी भावना है, संस्कार है *  हर जीव जीनेकी इच्छा रखता है और सुख पानेकेलीए कष्ट करता है *
यही पूर्णवादी तत्वज्ञान है *






उपासना याने क्या ?
अपना जीवन सफल होनेके लीए इश्वरको शरण जाने के दो मार्ग है पहला मार्ग है उपासना और दुसरा भक्ती मार्ग है *  भक्तीमार्ग यह अती कठीण मार्ग है इस मार्गमे हमे भगवानको प्रेम देना पडता है *  प्रापंचिक लोगोंके लिए यह मार्ग असंभव हो सकता है * 
भक्ती तो कठीण * सुळा वरील पोळी **
निवडे तो बळी *  विरळा शूर **
यह तुकाराम महाराज के विचार है *  महाराज हमेशा बताते है       भजन+पूजन= भक्ती *
  भगवानका परम भक्त होना याने की अपने खुदको भुल जाना और सिर्फ भगवान का विचार करना, उसकाही स्मरण करना, चितन करना, मनन करना, भगवानकाही ध्यास होना जरुरी होता है *
अपने अंदर एकरुपता होना याने भक्ती है *  यह एकरुपता, परमभक्ती ये सब एक व्यक्ती गृहस्थी संभालके नही कर सक ता इसीलीये महाराजजीने उपासना मार्ग बताया है *  जो मार्ग भवरोग दुर करता है उस मार्ग को उपासना मार्ग कहते है *




  

श्रध्दा ः-
श्रध्दा सुक्तका एक मंत्र है *
श्रध्दा प्रातर हवामहे *  श्रध्दा मध्यमं दिनं परि *
श्रध्दा सूर्यस्त निग्द्रची श्रध्दे श्रध्दा पयेहनः **

श्रध्दा याने जीवनकी शरुवात होती है *  श्रध्दा याने जीवन की सुप्रभात है *  श्रध्दा निर्माण होने के पश्चात जीवनकी उषःकाल शुरु होती है *  श्रध्दासे जीवननिष्ठासे, वेदनिष्ठा, देवनिष्ठा, समाजनिष्ठा ये सब निर्माण होती है *  अगर जीवनजीनेकी निष्ठा या श्रध्दा कम हो गयी तो जीवन ; जीवन नही रहता *
पूर्णवाद प्रणेते डॉ. पारनेरकर महाराज कहते है *  हर इनसानमे पाँच गुण होते है *
 शाश्वत अस्तित्व
अखंडज्ञान
परिपूर्णानंद
सर्वबंध निवृत्ती
ईशसत्ता
जों इनसान जीवनका महत्व समज सकता है वही इनसान जग की भी संज्ञा समझ समता है और इसेही श्रध्दा कहते है * 






पूर्णवाद ज्येष्ठ नागरिक संघ ः-
पूर्णवादी ज्येष्ठ नागरीक संघ और बाकी ज्येष्ठ नागरीक संघ इनमे फर्क ऐसा है की, भारतीय संस्कृती , परंपरा और पूर्णवादी जीवनजीने के तरिकेसे इनके संस्कारी घर, परिवार और समाज के प्रती अपने कर्तव्य पर संघ के अधिकार दिये गये है *  इस जरुरी उद्देश को ध्यान मे रखते हुए प्रगती के राह पर ले जाने की जिम्मेदारी जीवन मे प्रयास से व्यक्ती को और जिस व्यक्तीने ५० साल की उम्र मर्यादा को पार किया है ऐसे पूर्णवादी प्रत्येक ज्येष्ठ   नागरीकको ही आती है *  ऐसे स्थिती में पूर्णवादी ज्येष्ठ नागरीकों को काम करनेके लीए प.पू. पूर्णवाद वर्धिष्णू महाराजजजी ने उपदेश दिया है के पहिले स्वयं के जीवन का ध्येय निश्चीत करना चाहिये,ृ फिर उस ध्येय के अनुसार अपना आचरण होना चाहिए, आचरण में भगवान का मन और अपना मन एक करना चाहिए,  हर एक चीज संकल्प से करनी चाहीए *  कोई भी संकल्प सोच समझके लेना चाहिए *  वो झुठ नही होना चाहिए *  अगर हम जीवनमें  दिशा चाहिए तो हमें संकल्प का सेवक होना पडेगा *  इसके लिए तोरनमला जि. नंदुरबार यहाँ करिब २५० जेष्ठ नागरीकों के सहकार्यसे २३ / २४ अक्तुबर १९९९ इस दिन पहला अधिवेशन संपन्न हुआ *  दुसरा अधिवेशन इंदौर यहाँ २८ नवंबर २००५ को  संपन्न हुवा *  इन अधिवेशनोंमे प.पू. विष्णू महाराजजीने स्वधर्म और स्वकर्म ऐसे बोधवाक्य दिये है *  निश्चीत तरक्की की उम्मीद बडे लोगको होती है *  इसलिये स्वकर्म करना चाहिए उसिसे स्वधर्म का  बोध होगा *  धर्माचारण संस्कार रुपी कार्योंसे होता है *  अपने साथ अपने बच्चोंकी, परिवार और सबकी जिवननिष्ठा बढाना ये अपना (जेष्ठोंका ) कर्तव्य है *  इसके अलावा प्रत्यक्ष जीवन मे अंमल करने के दृष्टीसे जेष्ठ नागरिकों के काम कौनसे होने चाहिए इसकी सुचि दि गई है *  माता-पिता का श्राध्द करना, कुटुंब के धार्मिक विधी और आचारोंका पालन करना, भगवान को भोग चढाना, इसके पश्चात भोजन करना, पिताने अपने बेटे को साथ लेके भोजन करना, मनवार के साथ भोजन खिलाना, परिवार के व्यक्ती का जन्मदिन मनाना, सबसे सुसंवाद साधना*  घटती उम्रमें अपना स्वास्थ ठिक रहने के लिये व्यायाम करना, उसी तरह उपासना, नित्याभास और सृजनशिल विचारोंका प्रदान करने पर भी जोर देना चाहिए *  वैसेही प.पू. श्री विष्णू महाराजजींने जेष्ठ नागरीकों को अनेक आज्ञा की है * 
 जेष्ठ कहेलाना एक आव्हान है *
पारनेर के नियम जो घर मे संम्भालते है वो जेष्ठ है *
जेष्ठ याने घरका बडा पुरुष * 
संघर्ष प्रणवता याने जेष्ठता *
बेटा, बेटी और अन्यपर कैसे संस्कार हो इसलिये सजग रहता है वहि श्रेष्ठ *
जिसकी आशा कल के लिये जिवीत है वहि जेष्ठ *
जो शांती बनाए रख सकता है और संघर्ष भी अपना सकता है वह जेष्ठ *
मरना भी हो तो हीत के लिए इस तरह अपना बर्ताव रखता है वो जेष्ठ *
उनके नगरीवासी और पूर्णवादी संस्था को मार्गदर्शन करना, उनके काम पर नजर रखना,उन्हें राय देना, जीवन कला मंदिर के काम काज पर ध्यान देना, अभाव दूर करना, गुरुसेवा मंडल पारनेर इनके आदेश के अनुंसार अभ्यास वर्ग, शिबिर आयोजीत करना इत्यादी.




पूर्णवाद  लकी स्पाऊस असोसिएशन
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पूर्णवाद एक बडासा पेड है और पूर्णवाद लकी स्पाऊस असोसिएशन उन्ही अनेक शाखाओंमेसे एक है * इस शाखामे प.पू. महाराजजी सिखाते है की वैवाहिक जीवनमे अधिकतम प्रेम, गहराई और आस्था निर्माण करणेसे खुशहाल जीवन मिलता है *  आजके जमानेमे लोगोंके घर फुट जाते है, शादियाँ टुट रही है और तो और सबसे बडा प्रश्न बन गया है एक अच्छासा जीवनसाथी ढुंढना *  मगर यह हम युवाओंकी जिम्मेदारी है की हम सुखी कुटुंब बनाकर एक अच्छी जिदगी बीतानेका आदर्श रखे *  हमें तो हमेशा एक आदर्श पती या आदर्श पत्नि बननेके बारे मे सोचना चाहिए नाकी हमेशा झगडे करते रहना चाहिए*  अनेक युवाओंके बारेमे ऐसा होता है की वेह विवाह तो करते है लेकीन उनकी पती या पत्नी होनकी जो जिम्मेदारियाँ है उनके ज्ञानसे वेह वंचीत रहजाते है और प.पू. विष्णू महाराजजी पूर्णवाद लकी स्पाऊस असोसिएशन के द्वारा वही सिखा रहे है*
महाराजजी कहते है- वैवाहीक जीवनमे हर स्त्री व पुरुषने एक दुसरोंके लीए जीना चाहीए, नाकी अपने खुद के लिए* वेह कहते है शादियाँ टुटनेके कई कारण होते है -  ********, *********** ******* **** *****, ******** **** **************** ** ********* ******, *** ******** ********* ***.*  अगर हम इनपर गौर करे, इन्हे सुधारनेका प्रयास करे, तो हमारा वैवाहिक जीवन सफल हो सकता है,  और ऐसेही खुशहाल वैवाहिक जीवनसे खुशहाल परिवार बनता है और खुशहाल परिवारसेही तो खुशहाल भारत बनता है*  कहते है ना ******* ******* ** ****.  घर खुश करो देश खुश हो जाएगा*
जय पूर्णवाद
















पूर्णवाद शिक्षण प्रसारक परिषद
इस भूलोक पर हर व्यक्ती को सुखी और समाधानी होने की और मन के अनुसार जीवन व्यतित करने की चाह होती है*  प.पू. पूर्णवादाचार्य डॉ. रामचंद्र प्रल्हाद पारनेरकर महारजजीने पौर्वात्य और पाश्चिमात्य तत्वज्ञान के साथ साथ इतिहास, पुराण, उपनिषद और वेद का भी गहराई से ज्ञान प्राप्त किया है और श्री गणेशजी के कृपाशिर्वाद से किन्तु वेदाधिष्ठित न्याय और तर्क की सुसंगती से इस दुनिया को उन्होने सबसे बडा आशिर्वाद दिया है*  उन्होने ज्ञान का प्रसार करने के लिए परिसरांत, संफ, संघर्ष और अभिनव अभंग इन ग्रंथोंकी रचना की *
प.पू.डॉ. पारनेरकर महाराजजी कहते है की, आज के जमाने में मनुष्य को पढना और लिखना आना अत्यंत आवश्यक है, ऐसी सोच समाज सुधारक शिक्षणतज्ज्ञ और पुढारी रखते है* किन्तु वो लिखना और पढना सिख लेने से उसमे कुछ सुयोग्य बदल होते है क्या? ये जान लेने की क्षमता कोई नही रखता*  पुराने जमाने में जिस तरह अलग अलग प्रकार की दुकाने किसी यात्रा मे लगती थी, उसी तरह आज शिक्षण के बाजार में अनेक प्रकार की दुकाने देखने मिलती है*
जहां पर मनुष्यका, उसके स्वभावका उसकी जरुरतोंका गहराई से ज्ञान प्राप्त न करते हुए, कोई भी उठकर और एक नई शिक्षण प्रणाली बनाकर सामने लाना यानि किसी भी रोगी व्यक्ती की परख न करते हुए उसे दवाईयाँ देना इसकी जैसा नही क्या?
इसलिए प.पू.डॉ.पारनेरकर महारज अपने संघर्ष ग्रंथ में कहते है की, अगर किसी भी राष्ट्र के पास काफी सैन्यदल नही हो तो कुछ फरक नही पडता किन्तु जिस राष्ट्र में शिक्षण को उचित स्थान नहीं मिलता उस राष्ट्र का भविष्य अंधःकारमय होता है*
अखिल भारतीय पूर्णवाद शिक्षण प्रसारक परिषद ये एक ऐसी संस्था है जो परमेश्वर की और से एक तोहफा मिला है जो अपना अनमोल जीवन व्यतित करके उसका सार्थक करने की जीवनमुल्ये आचरण मे लाकर सिर्फ अपना ही नहीं बल्की और लोगों को भी पूर्णवादी जीवन साकार कराना इसके लिए परिषद कुछ उद्दिष्ट सामने रखकर कार्य करती है *
उद्दिष्टे ः-
  पूर्णवाद तत्वज्ञानपर आधारित मानव संसाधन विकास पर जोंर देने वाली शिक्षण प्रणाली बनाना*
पूर्णवाद व अनुषंगिक ग्रंथोंके नियमित अभ्यास वर्ग चलाना*
पूर्णवाद तत्वज्ञानपर आधारीत परिक्षा पध्दती का निर्माण करना*
पूर्णवाद तत्वज्ञानपर आधारित प्रचार और प्रसार करने के लिए शिक्षक और कार्यकर्ताओं को तैयार करना*
पूर्णवादी तत्वज्ञान का सामाजिक प्रबोधन करने के लिए व्याख्यानमाला, चर्चासत्र और सम्मेलन आयोलीत करना*
मानव संसाधन विकास के संदर्भ मे शिक्षणशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र का समन्वयात्मक ज्ञान प्राप्त करना*
पौर्वात्य और पाश्चिमात्य तत्वज्ञान का तौलनिक ज्ञान प्राप्त करनेवाली ज्ञानपिठोंकी रचना करना*
पूर्णवादी विचारोंपर शोध निबंधात्मक और संशोधनात्मक    ज्ञान चितन, लेखन और उसका प्रकाशन करना*
पूर्णवाद शिक्षण प्रसारक परिषद का मुख्यपत्र चलाना*
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पूर्णवाद पूर्णकन्या प्रतिष्ठान ः-
पूर्णकन्या स्मरेत् नित्यम
अध्यक्षाः सौ. विभावरी भारतराव कुलकर्णी, पुणे
दो साल पहिले उत्सव में प.पू. विष्णू महाराज जी ने एक नयी संस्था को जनम दिया वो पूर्णकन्या प्रतिष्ठान है* यह सिर्फ नव विवाहित युवती और लडकियों के लिए संस्था है*   प.पू. महाराज जी को इस संस्था की जरुरत क्यों लगी, वो किस क्षेत्र में क्या कार्य करती है?  उसका उद्देश क्या है*  ऐसे कई सारे प्रश्न सामने आते है* उसके लिए पहले पूर्णवादी पूर्णकन्या यह संकल्पना समझना जरुरी है*  बेटी, युवती इससे भी ज्यादा एक कन्या संकल्पना व्यापक है*  सामान्यतः स्त्री जीवन के कन्या, पत्नी और माता ऐसे तीन स्वरुप माने जाते है*  लेकिन कन्या रुप स्त्री के जीवन का मुख्य गाभा है*  वह एक **** है*  जीसपर उसके पत्नी और माता का स्वरुप बहरता है* अव्यक्त से कन्यारुप में उसपर किये जानेवाले संस्कार ही मुर्तस्वरुप में उसके आगे के सारे जीवन में देखने मिलते है*  कन्या उसका पारिवारीक स्वरुप है*  यहाँ संस्कारों से कुछ गुणदोष के आधारपर उसका व्यक्तीमत्व तैयार होता है*  जो आगे जाकर पत्नी के रुपमें उसके सामाजिक व्यक्तीमत्व में परिणत होता है*  इस वजह से आजके स्त्री जीवन के प्रश्न और उससे जुडकर आनेवाली सामाजिक समस्या  जाननी है तो पहिले स्त्री के कन्या स्वरुप का अभ्यास होना जरुरी है*
वास्तव में स्त्री स्वातंत्र्यका उगम कन्या में ही होता है*  आगे पत्नी और माता के रुप में यह स्वातंत्र्य बढता है लेकीन स्वातंत्र्य बढाना और उसका अनुभव लेना आज कठीन है*  क्य की कन्या स्वरुप याने समाजमें उसके महत्व पूर्ण भूमीका वह भूलसी गई है*  यहाँ तक के कन्या को जनम देना चाहिये या नहि यहाँ तक कठीण परिस्थिती निर्माण हुई है*  और यह विचार करने वाली स्त्री ही है*  पर ऐसी कौनसी परिस्थीती वा कारण उसे यह निर्णय लेने पर मजबूर कर रहि है यही उतना हि महत्वपूर्ण है *
पूर्णकन्या प्रतिष्ठानके उद्देश और कार्ये ः-
स्त्री जिवन के साथ कन्या स्वरुपका सन्मान करना*
  मातृरुपमेसे कन्यारुपका अभ्यास करना चाहिये*
 नवनिर्मिती,सहनशिलता, क्षमाशिलता इन गुणोंका संचय कन्या मे करना*
समझतासे और सुझबुझके जीवन जीनेकी समझ कन्याके मनमे जागृत करना*
वर्तमान युगकी कठीनाईयोंका सामना करने के लिये सक्षम करना *
कन्या को निराश न होने के लिये प्रगती के पथ पर रखना*
उसकी जगह स्वास्थ कि भावना निर्माण करना*
जिवन मे मिले हुए ****** ***** के माध्यमसे आत्मबल बढाना*
 समाजके विविध क्षेत्रोंसे असमतोल ढुंढणे और उनके उपर उपाययोजना करना *
जागतिक प्रश्नों के सवाल देने की क्षमता प्राप्त करना *





प.पू. विष्णु महाराजजीका परिचय ः-
आषाढ शुध्द १३, शके १८६८, २९ जून १९३९ गुरुवार के दिन आदरनिय सौ. मनकर्णिका माताने एक तेजस्वी पूत्र को जनम दिया*  प.पू.डॉ. पारनेरकर महाराजजी तो फुलेही नही समा रहे थे*  सौ.रमाबाई व अण्णा भटजी को नानी व नाना बननेका सुखद अनुभव हो रहा था, और दुसरी ओर वेदमुर्ती गुरु प्रल्हादगुरु पारनेरकर और सौ. यमुनाबाई दादाजी व दादीजी होनेके सुखमे थे* बालक अतिव तेजस्वी था*  बालकके तेजस्वी रुपसे वह कमरा तेजस्वी बन गया था*  बालक के जनम की तिथीसेही बालकका भविष्य साफ नजर आ रहा था*  वह कहते है ना बालक के पैर झुलेमेंही नजर आते है*  बालक के जन्मकी तिथी थी १३ ऋतुचक्र होता है १२ महीनोंका लेकीन बालक का जनम त्रयोदशीको हुवा इसिमेंही उनके भविष्यमें विकास नजर आता है*  क्योंकी तिथी अंक एकसे बढकर एक था इसका अर्थ यह है की बालक हमेंशा जो भी करेगा एक से बढकरही करेगा*  वही बताते है की यह बालक आगे जाकर अपने पिताका कार्य वर्धिष्णू करेगा* एक प्रगाढ, विद्वान, तेजस्वी व तपस्वी पिताके पूत्र और उसके साथही एक सालस, सात्विक, गुणवती माताके पुत्र वही प.पू. अॅड. श्री विष्णु महाराजजी पारनेरकर हैं*  महाराजजीके जन्म के दौरान डॉ. रामचंद्र पारनेरकर महाराजने एक गीतकी रचना की थी *  उस गीतमें उन्होंने ना केवल अपने कुटूंबका बल्की भारत भुमीका, भारत परिवारका, विश्वका और कलका भी उल्लेख कीया है* उस गीत के चार पंक्तीयोंका मै यहां उल्लेख किया हैं*

घे सकलांच्या प्रेमे झोके घेई, करी बाळा झो झो गाई
उभी इंग्लंडची राजनीती तवसाठी, म्हातारी घेऊन काठी
ही हिटलरची झोटींग शाही तव पाठी, लागलीच तरणी ताठी
हा मुसोलिनी डोळा काढील तुजला, का भिशील का रे बाळा
का हसलारे हससी का लडिवाळा, मम जीव बावरा झाला
हो शूरवीर रणधीर
गर्जना करी चौफेर
बुध्दीचा लावून तीर
या जगताची थांबवी कोल्हेकुई, करी बाळा झो झो गाई 

हम सब जानते है की दत्तजन्म के समय पर स्वयं भगवानको अनुसया माताके समक्ष बालक का रुप धारण करना पडा, और कुछ ऐसिही बात यहाँ हुई मणकर्णिका माताका श्रेष्ठत्व जग के समक्ष लानेके लिए प.पू.विष्णु महाराजके रुपमे भगवानने जनम लिया था,  और विधी अनुसार माता पुत्रको बडा करने मे जुट गई* बालक को अपने पिताके स्वाधीन करनेसे पहिले माताही पहला गरु होती है इसलिए कहते है सुशीलो मातृपुण्येन * बेटे के जनम के बाद कुछही दिनोंमें माताजीको अपने ससुराल जाना पडा*  उनकी सासुमाँ सौ. यमुना माता बिमार थी* 
थोडेही दिनोंमें उनका देहान्त हो गया*  घरकी पुरी जिम्मेदारी अच्छी तरहसे सम्भालते हुए भी माताजीने शरद (विष्णु महाराजजीका दुसरा नाम) की  बोहोत अच्छी और संस्कारीनता से परवरिश की*  उन्हें एक आदर्श व्यक्ती बननेकी प्रेरणा दी और वे आज पूर्णवाद वर्धिष्णु प.पू.अॅड. विष्णु महाराजजी पारनेरकर इस संज्ञा से विख्यात है *
प.पू. विष्णु महाराजजीने प्राथमिक शिक्षा इंदौर मे पूर्ण की*  तथा उसके पश्चात उन्होंने *.*,*.*.*. की पदवी प्राप्त की*  श्ुरुसेंही उन्हें वक्तृत्व और कसरतों मे रुची थी*  वे एक अच्छे मल्लखांबपटु के रुप जाने जाते थे*  साथ ही उन्हें राजकारण, समाजकारण और अर्थकारण मे भी रुची थी * 
युवकोंकी भावनाओं के प्रति  प्राथमिकतासेही उनके मन मे लगाव था *  इसिसे प्रेरित होकर उन्होंने युवकक्रांती मुखपत्रकी श्ुरुवात की*  यह मुखपत्र श्ुरुमें साप्ताहिक के रुप में आरंभ हुवा और आज वह एक मासिक के रुप मे जाना जाता है*
प.पू.डॉ. रामचंद्र महाराजजीके अधिदैवीक पक्षका, और श्रीमंत श्री शिवाजी महाराजजी का अभ्यास करने हेतु उन्होंने शिवराम प्रतिष्ठान की स्थापना की है*
आज इसके फलस्वरुप शिवाजी महाराजजीके मंदिरों का निर्माण पारनेर, औरंगाबाद और नासिक मे हुवा है*
शिवाजी महाराजजीका स्मारक के माध्यमसे अभ्यास करना और मंदिर मे अभ्यास करना इसमे क्या फर्क है ये हमें प.पू. विष्णु महाराजजीने सिखाया है*
   आज न केवल भारतवर्षमें ही नही बल्की अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, मॉरिशस इन देशों मे भी प.पू.डॉ. रामचंद्र महाराजजी के मंदिरोंका निर्माण हुवा है, साथही यहाँ पूर्णवादी शिष्यपरिवार का विस्तार हुवा है*
   यही सब प.पू. विष्णु महाराजजीके अथक प्रयासोसेही संभव हो पाया है*
   पूर्णवाद का यह विश्वकार्य प.पू. विष्णु महाराजजीके आशिर्वाद से  ही वर्धिष्णु हुआ है, हो रहा है*








जीवन कला मंडळ ः-

   जिस गांव में पूर्णवादके उपासक, प्रेमी और अभ्यासक नागरीक है उस  जगह जिवन कला मंडळ यह संस्था कार्यरत होनी चाहिए*
     अपने जिलेमें ऐसे मंडल अगर कार्यरत है तो ऐसे मंडलकी शाखासे जुडकर कार्य कर सकते है*
जिस जिले में अनेक वर्षसे पुर्णवाद के कार्य और कार्यक्रम शुरु है पर वहाँ के मंडल विश्वस्त कानुन अनुसार  पंजीकरण नही किया है उस जगह पे कानुनि तौर से उस मंडल की पंजिकरण करना जरुरी है*  इसके लिए पारनेर या अपने नजदिकी क्षेत्र के मंडल से या मंडलके पदाधिकारी से मार्गदर्शन (सहकार्य) ले सकते है*
जिवन कला मंडल की विश्वस्त संस्था इस नामसे पंजीकृत  करते समय किसीभी जगह धार्मीक धर्मसे जुडे शब्द का उपयोग ना करें, क्योंकी इस कारण मंडल के विषयमे गलतफहमी हो सकती है*
जीवन कला मंडलकी विश्वस्त संस्था इस नामसे पंजीकृत करते समय उसके नियम और शर्तें समझनेमे आसान हो इस तरहसे बनाए जाए और नया मंडल स्थापीत करते समय उसका कार्यक्षेत्र जिला सिमीत न रखते हुए नजदीकी क्षेत्रोंको समाविष्ठ करना आना चाहिए ये आगे शाखा विस्तार करते समय उपयोगमें आ सकता है*
मंडल के उद्देश मे इतर उद्देश्योंके साथ निचे दिये गये उद्देश्योंका समावेश करना जरुरी है*
   अ)   पूर्णवादी तत्वज्ञानका अभ्यास, प्रचार, प्रसार और 
          आचार करनेके लिए आवश्यक कार्य करना जरुरी है*
   ब)   समाजकी अच्छाई, नितिमत्ता और सांस्कृतिक गुणवत्ता  
         संभालनेवाला या आदर्श जिवन व्यतीत करने वाला उसी  
        तरह प.पू. पारनेरकर महाराजजी और पूर्णवाद के अन्य     
        कार्यकर्ता इनका गौरव करना और आर्थिक निधी या
        इस तरहकी मदत करना*
 क)   पूर्णवादी तत्वज्ञानके प्रचार और प्रसार के लिए आवश्यक  
        साहित्य प्रकाशीत करें *
 ड)   शिक्षण संस्था, वसतीगृह, प्रशिक्षण संस्था, क्रिडा व 
        व्यायाम शाला, अस्पताल, शोधसंस्था, ग्रंथालय, प्रकाशन 
        संस्था, सहकारी संस्था,  महिला संस्था, युवा 
        पिढी के लिए रोजगार उपलब्ध कराने वाली और 
        मार्गदर्शन और सहकार्य करनेवाली संस्था ऐसी संस्था 
        निर्माण करना, उसे चलाना, चलानेके लिए देना और 
        चलानेके लिए लेना, ऐसी संस्थाओंको मदत करना*
 इ)    समाज प्रबोधन के लिए अभ्यासवर्ग, अधिवेशन लेना,
        शिक्षकोंको प्रशिक्षीत करना, अभ्यासकोंको अभ्यासके सर्व
        साहित्य उपलब्ध कराना*
 ई)   श्री गणेशोत्सव, श्री गुरुपौर्णिमा उत्सव, कोजागिरी     
       पौर्णिमा उत्सव, और पूर्णवाद ग्रंथ प्रकाशन दिन इ.
       कार्यक्रम प्रबोधनपर कार्यक्रम के अंतर्गत मनाना चाहिए*
 उ)   पूर्णवाद मार्गदर्शक ग्रंथ प्रकाशित करना *
 ऊ)   संस्थाके उद्देश हेतु विविध मार्गोंसे निधी उपलब्ध कराना  
       और उसके लिए आवश्यक कार्यक्रम लेना इसके अलावा
       स्थानीक आवश्यकता नुसार संस्था के उद्देशमे वृध्दि करना 
       चाहिए*








  पूर्णवादी संगीत कला अकादमी श्रीक्षेत्र पारनेर

   आजके युग में संगीतसे जुडी रसीकता दर्शानेवालोंकी जीवनशैली तकरीबन नष्ट होने जा रही है*  इसी कारण जीवन में अस्वस्थता बढ रही है* जब संगीतके दो स्वर आपसके सतत संफ मे रहते है, उसी वक्त दो स्वरोंसे रसोत्पत्ती (यानि नवनिर्मित) होती हैं* वो आपसमें सांगीतिक आस दर्शाती है * जैसे जीवनमें दो व्यक्ती और उनके व्यक्तीके आपसके सतत संफ से जीवनरसकी निर्मिती हो सकती है * सभ्यता  और जीवनके  प्रती अपनेपन की भावना बढती है* परंतु तंत्रज्ञान से इस अपनेपन की भावनाको  ठेस पहुंचाई और गुरुकुल व्यवस्था, गुरु-शिष्य परंपरा, कलाकार, रसिक इनके आपसकी दुरियाँ बढती गयी और धिरे धिरे परंपरा, घराणा और जरुरी सांगीतीक संस्कार भी सभ्यतासे लाए हुये तंत्र मे शामील हो गए*
   जिस तंत्रज्ञान के युग मे कुछ परेशानियाँ उस समाज की संस्कृतीमे आई, फिर भी आज भारतमें सृजनशिलता पूरी तरह से नष्ट होने से पहले संगीत कला के क्षेत्रमें सभ्यता और संस्कृती इनका योग्य मेल अगर हो जाए तो फिरसे घराणोंकी और परंपराओंकी एक नई सुबह होगी*  फिरसे एक बार समृध्द समाज इस युग में अपनी पहचान बनाके अच्छे वैचारिक स्तरपे एक समृध्द भारत निर्माण करेगा*  यह सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा जो जीवनसे निगडीत है उसका सुसूत्रीकरण करने का कार्य  पूर्णवादी संगीत कला अकादमी  कर रही है *
   अच्छे कलाकार निर्माण करना यह जैसे संस्था का ध्येय है वैसे हि एक अच्छा श्रोता निर्माण करना यह भी संस्था का ध्येय है *  जैसे आचार्य भरतमुनि कहते है रस इति कः पदार्थ उच्चते* आस्वाद्यत्वात विभानानुभव व्यभिचारी संयोगद्रसनिष्पतिः ** यह सृष्टीके संगीतका मुख्य रस सुत्र है *
   आजतक   पूर्णवादी संगीत कला अकादमीने अनेक जगह अधिवेशनों का आयोजन किया है* साथ ही प.पू.महाराजजी के अभिनव अभंगों का प्रचार प्रसार हेतु अभिनव अभंग गायन व अभ्यास शिबीर का आयोजन भी किया है*   २००९ इस वर्ष को अभिनव अभंग का सुवर्णमहोत्सवी वर्ष के रुप मे मनाया गया* इस वर्ष मे जगह जगह पर अभिनव अभंगो के अभ्यास शिबीरोंका आयोजन किया था * इसमे संगीत कला विद्यापिठ का उद्घाटन सर्व प्रथम पारनेर क्षेत्र मे हुआ*  सौ.संगीता  पारनेरकर इनके मार्गदर्शन से इस विद्यापिठ का कार्य उत्तरोत्तर प्रगति के मार्ग पर चल रहा है*






भारती  पूर्णवाद नारी फोरम ः-
 इनसानियत की जरुरत समझते हुए प.पू. विष्णु महाराजजी पारनेरकर इनकी प्रेरणासे पूर्णवाद नारी फोरम संस्था की स्थापना सन १९९५ मे हुई * समाजोंमे टुटे हुए घर, टुटी शादियाँ जोडने के लिए पूर्णवाद नारी फोरम दिलो जानसे प्रयास कर रही है* समाजमे नारी का स्तर ऊँचा बना रही है*
   एक इनसान बनके जीनेके लिए पूरीतरहसे विकास होना जरुरी है*  इसीलीए नारीयोंको विकसीत करनेके लिए पूर्णवाद नारी फोरम हर साल अनेक उपक्रम भी आयोजीत करती है* इस संस्थामे महाराष्ट्र मे ७५ शाखाए है*  यह संस्था जानती है की नारीको समाज मे स्वाभिमान और आत्मविश्वास होना जरुरी है, और वो स्वाभिमान और आत्मविश्वास तभी आता है जब स्त्री आर्थीक स्तरपे स्वावलंबी हो, इसीलीए नारी फोरम अनेक उपक्रम चला रही है*
   राष्ट्रहितक दृष्टीकोनसे नारीओंकी राजकारणविषयक रुची बढाना, स्वदेश / स्वप्रांतका भवितव्य बनाने के लिए जागृत रहना  यह सब सिखानेके लिए यही संस्था महिलाओंका, महिलाओंके लिए रहनेवाला एक राजकीय पक्ष बनानेके प्राथमिक तयारीयोंमे जुटी है*  इसी तरहसे भारतीय पूर्णवादी नारी फोरम व्यक्तीसे विश्वतक अपना कार्यक्षेत्र बडी यशस्वीतासे कार्यरत रही है;  और प्रगतीके पथ पर बढ रही है* माँ बच्चोंको खाना खिलाती है, बढाती है, वैसेही नारी फोरम संस्था खुद माँओंको सिखाती है, ताकी वो आगे जाकर आदर्श नारी बनें*  एेंसी माताओंकी माँ भारतीय पूर्णवाद नारी फोरम संस्था है*






स्वभाव ः-
उपासना मार्गमें स्वभाव अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है*  उपासकने अपने स्वभाव का अभ्यास करना चाहिए*  आजतक हमें ऐसा सिखाया गया है की, स्वभाव जन्मसिध्द होता है, उसका परिवर्तन नही होता, वो आखरीतक एकही रहता है*  ऐसे विचारोंकी नीव मानवी मनमें रखी गयी है* इसलिए मानवी जीवनकी प्रगती जो होनी चाहिए वह रुक गई है* मानव अधोगती की तरफ बढ रहा है*
   पूर्णवादाचार्य प.पू. पारनेरकर महाराजजीने ऐसी भ्रामक कल्पना को बदल देने के लिए और मानवी जीवन सुखी करने हेतु सिध्दांत सामने रखा है*  स्वभाव मुलतः नही होता, हम उसका परिवर्तन कर सकते है* इस क्रांतीकारी विचारोंकी वजहसे मानवी जीवनमें समाधान, शांती और सुख की प्राप्ती हुवी है*  इस विवेचन को प.पू. महाराजजीने परिसरांत ग्रंथमे विस्तारीत किया है*  वो कहते है-

अस्मिता सवयी मन प्रकृती * या माजि स्वभाव निर्मीती *
बुध्दी आणि परिस्थिती * स्वरुप आणिती स्वभाव *
स्वयंभू नसे स्वभाव * ती असे संस्कार ठेव *
प्रयत्ने आपुला स्वभाव * काळ सापेक्ष करावा *
जीवनाची मूर्त घडण *   स्वभाव योगे घडे जाण *
सुख दुःखाची कारण * एक स्वभाव असे हा **
  
मनुष्यका स्वभाव उसकी अस्मीता, आदते, मन और प्रवृत्ती से जन्म लेती है* यही स्वभाव की शिक्षा हमें प.पू. महाराजजीने दी है*







स्वधर्म ः-
उपासक जैसा गुरुनिष्ठ होता है उसी तरह वह स्वकर्मनिष्ठ भी रहना चाहिये*  जिसकी वजह से उसके हातो जो भी कर्म होते हैं वह धर्मकर्म होते हैं* इसका मतलब उसका हरएक कर्म धर्म में निहीत होता है* उपासक को समय की पहचान होती है*  समय प्रधानता और परिस्थिती पर मात करनेके लिए समय की महानता को      समझकर जो कर्म होता है वह परिस्थिती अनुरुप होने लगता है जिसकी वजह से समय और मन इनका वार्तालाप अपनेआप निर्माण होता है*  ऐसा उपासक धर्मपालन करनेवाला, धार्मिक, धर्मशील इस पद को पात्र होता है*  जिसकी वजह से धारणात धर्मनित्याहु इस पद का आशय उसके ध्यान में आता है*  धर्म याने धारणा * धारणामेंसे कार्य सिध्द होता है*  कौनसी चीजें है जो धारण करें और यह धारण करनेसे और जिसका अवलंब करनेसे मेरी धार्मिक उन्नती होगी*  कौन? कहाँ? क्या? कैसे? और कितना? यह सब वो समझने लगता है और वह प्रगतीपथपर निरंतर रहता है*  इसिको धार्मिक धर्म जाननेवाला कहते है*
   इसलिए हर समय उपासकने खुद के सामान्य धर्म की सोच करनी चाहिए*  यह स्वधर्म के पास पहुँचने का मार्ग है*
   भगवंत अर्जुन को कहते हैं,
स्वधर्मी निधनं श्रेयः * परधर्मो भयावहः **
   स्वधर्म में रहकर, जीवन बिताकर उसीमें जीवन का अंत होना यही श्रेयस कर्म है*




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